सावन में कांवड़ यात्रा का अपना महत्व होता है. ये महीना भगवान भोलेनाथ का माना जाता है.
कहते हैं अगर सावन में भगवान शिव की दिल से पूजा करें तो सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं.
भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए भक्त कांवड़ लेकर जाते हैं और फिर उनका जलाभिषेक करते हैं.
दरअसल, कांवड़ यात्रा की अपनी परंपरा होती जो भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर गंगा जल चढ़ाने के साथ पूरी होती है.
कांवड़ यात्री इस जल को अपने कंधे पर लेकर जाते हैं और भगवान भोलेनाथ पर इसे अर्पित करते हैं.
हिन्दू धर्म में मान्यता है कि कांवड़ यात्रा करने का फल अश्वमेघ यज्ञ के समान होता है.
कांवड़ के इतिहास की बात करें तो कहते हैं कि परशुराम ने पहली बार कांवड़ यात्रा की थी. उन्होंने यह सावन के महीने में पूरी की थी.
कई धार्मिक किताबों के मुताबिक, श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता की इच्छापूर्ती के लिए उन्हें कांवड़ में बैठाकर गंगा स्नान करवाया था.
भक्तजन इस गंगाजल को गौमुख, गंगोत्री, ऋषिकेश और हरिद्वार से लेकर आते हैं. इसके बाद वे भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं.
जो कांवड़ वे लेकर जाते हैं वह बांस से बनी होती है. जिसे जमीन पर नहीं रख सकते हैं.
इसके अलावा बिना नहाए हुए इसको छूना भी पाप होता है. साथ ही यात्रा के दौरान कांवड़ियों को मांस, मदिरा या तामसिक भोजन को ग्रहण करने की मनाही होती है.