scorecardresearch

Haifa Day: हाइफा की लड़ाई के बारे में जानिए, जब तोप, बम और बंदूक पर भारी पड़ी थी भारतीय लड़ाकों की तलवार

आज के दिन को इजरायल में हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है, भारतीय सेना भी इस दिन को मनाती है. हाइफा इजरायल का एक शहर है, जिसे 1918 में भारतीय सैनिकों ने आजादी दिलाई थी.

हाइफा डे हाइफा डे
हाइलाइट्स
  • ब्रिटिश सेना की मदद के लिए उतरी थी भारतीय सेना

  • डर गई ब्रिटिश सेना पर डटे रहे भारतीय सैनिक

हर साल 23 सितंबर को इजराइल में हाइफा दिवस मनाया जाता है. भारतीय सेना भी इस दिन को हाइफा दिवस के रूप में मनाती है. आज 23 सितंबर, हाइफ़ा की लड़ाई की 104 वीं वर्षगांठ है. ये प्रथम विश्व युद्ध की वो लड़ाई है, जिसमें ब्रिटिश भारतीय सैनिकों ने हाइफ़ा को ओटोमन से मुक्त कराया था. हाइफा इजराइल का एक प्रमुख शहर है, जिसे तुर्कों के कब्जे से छुड़ाने में भारत की अहम भूमिका थी. ऐसा माना जाता है कि इजरायल की आजादी का रास्ता हाइफा की लड़ाई से होकर गुजरता है. इस लड़ाई में भारतीय सैनिकों ने सिर्फ भाले, तलवारों और घोड़ों के सहारे ही जर्मनी-तुर्की की मशीनगन से लैस सेना को धूल चटा दी थी. इस युद्ध में भारत के 44 सैनिक शहीद हुए थे. हाइफा को 23 सितंबर को ही आजाद कराया गया था, इसलिए इन दिन को हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है.

ब्रिटिश सेना की मदद के लिए उतरी थी भारतीय सेना
हाइफा में ब्रिटिश सेना की मदद के लिए भारतीय सैनिकों को भेजा गया था. इसमें हैदराबाद, मैसूर और जोधपुर से सैनिकों को भेजा गया था. हैदराबाद के निजाम ने सैनिकों को भेजा उन्हें युद्धबंदियों की देखभाल के लिए काम पर लगाया गया,  मैसूर और जोधपुर की घुड़सवार सैन्य टुकड़ियों को मिलाकर एक खास यूनिट तैयार की गई, जिसका काम हाइफा को आजाद करवाना था. जिसने हाइफा को आजाद कराने में खास भूमिका निभाई थी.

हाइफा युद्ध का नायक
दलपत सिंह शेखावत इस हाइफा युद्ध के नायक थे. हाइफा के युद्ध में भारतीय सैनिकों के दल का नेतृत्व जोधपुर के मेजर दलपत सिंह शेखावत ने किया था. हाइफा को आजाद कराने में अहम भूमिका निभाने के लिए मेजर दलपत सिंह को 'हीरो ऑफ हाइफा' के तौर पर जाना जाता है. उनकी बहादुरी के लिए उन्हें मिलिटरी क्रॉस से सम्मानित भी किया गया. भारतीय सैनिकों का मुकाबला तुर्की, ऑस्ट्रिया और जर्मी की सेना से था, जिनके पास आधुनिक तोप, बम, बंदूक टैंक, हथियार आदि थे. वहीं भारतीय सैनिकों के पास तलवार के नाम पर सिर्फ भाला था. उन घुड़सवार सैनिकों ने सिर्फ तलवार और भाले के दन पर आधुनिक हथियारों से सुसज्जित दुश्मन सेना का सामना और उन्हें परास्त भी किया. 

डर गई ब्रिटिश सेना पर डटे रहे भारतीय सैनिक
हाइफा पहुंचने के बाद ब्रिटिश सेना को जब पता चला कि दुश्मन काफी मजबूत और ताकतवर है, ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर जनरल ने अपनी सेना को वापस बुला लिया. लेकिन इस पर भारतीय सैनिकों ने ब्रिगेडियर जनरल के आदेश का विरोध किया. भारतीय सैनिकों का कहना था कि हम यहां लड़ने के लिए आए हैं, ऐसे में पीठ दिखाकर भागने से हम कायर प्रतीत होंगे. भारतीय सैनिकों की जिद्द के आगे आखिरकार ब्रिटिश ब्रिगेडियर जनरल को झुकना पड़ा.

तुर्कियों के आधुनिक हथियार के सामने नहीं झुके भारतीय सैनिक
रवि कुमार की किताब 'इजरायल में भारतीय वीरों की शौर्यगाथा' में इस किताब का सही से विवरण किया गया है. उसमें लिखा है कि 23 सितंबर 1918 की सुबह भारतीय घुड़सवार और पैदल सैनिकों के जत्थे ने हाइफा की ओर बढ़ना शुरू किया. भारतीय सैनिकों के हाथों में तलवार और भाले थे. भारतीय सेना का रास्ता माउंट कार्मल पर्वत रेंज के साथ लगता हुआ था और किशोन नदी एवं उसकी सहायक नदियों के साथ दलदली भूमि की एक पट्टी तक सीमित था. जैसे ही सेना 10 बजे हाइफा पहुंची, वह माउंट कार्मल पर तैनात 77 एमएम बंदूकों के निशाने पर आ गई. लेकिन भारतीय सैनिकों ने यहां पर सूझबूझ दिखाई. मैसूर लांसर्स की एक स्क्वाड्रन शेरवुड रेंजर्स के एक स्क्वाड्रन की मदद से दक्षिण की ओर से माउंट कार्मल पर चढ़ी. उन्होंने अचानक से दुश्मन पर हमला कर दिया. दुश्मनों की मशीन गन के खिलाफ भी उन्होंने आक्रामकता से आक्रमण किया और कार्मल की ढलान पर खड़ी दो तोपों पर कब्जा कर लिया. उधर दोपहर दो बजे 'बी' बैटरी एचएसी के समर्थन से जोधपुर लांसर्स ने हाइफा पर हमला किया. दोपहर तीन बजे तक भारतीय घुड़सवारों ने उनके स्थानों पर कब्जा कर तुर्की सेना को पराजित कर हाइफा पर कब्जा कर लिया.

इजराइल की किताबों में भारतीय सैनिकों का जिक्र
हाइफा ने भारतीय सैनिकों के बलिदान को अमर करने के लिए साल 2012 में उनकी बहादुरी के किस्सों को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल करने का फैसला किया था. करीब 402 सालों तक तुर्कों की गुलामी के शहर को आजाद कराने  में भारतीय सेना की भूमिका के याद करते हुए नगर पालिका ने हर साल एक समारोह के आयोजन का भी फैसला लिया था.