इज़रायल-फिलिस्तीन विवाद फिर से चर्चा में है. यह विवाद पिछले कई सालों से चला आ रहा है और आगे भी इसके सुलझने के आसार नहीं दिख रहे हैं. हालांकि, इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष के बारे में ज्यादातर लोगों को जानकारी है. फिलिस्तीनियों का कहना है कि इज़रायल को उनकी मातृभूमि पर जबरन स्थापित किया गया था, और इज़रायल का दावा है कि उनका अपनी बाइबिल मातृभूमि पर अस्तित्व का पूरा अधिकार है.
अब सवाल है कि 'इज़रायल' में यहूदियों का प्रवास सबसे पहले कैसे शुरू हुआ? मई 1948 में इज़रायल के निर्माण की आधिकारिक घोषणा से पहले, इसकी पृष्ठभूमि कैसे बनी और इसमें ब्रिटेन और दूसरे देशों की क्या भूमिका रही.
यहूदी विरोधी भावना और यहूदीवाद
हिब्रू बाइबिल के अनुसार, 'इज़रायल' वह नाम है जो गॉड ने अब्राहम के पोते जैकब को दिया था, जिसे तीनों 'अब्राहम' धर्मों का पितामह माना जाता है: यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम. इब्राहीम के वंशज कनान में बस गए, जो मोटे तौर पर आधुनिक इज़रायल का क्षेत्र है.
सहस्राब्दियों बाद, 19वीं सदी के अंत तक, कनान की भूमि कई साम्राज्यों (यूनानी, रोमन, फारसियों, क्रुसेडर्स, इस्लामवादियों, कुछ के नाम) से गुज़रने के बाद ओटोमन सल्तनत का हिस्सा थी. यहूदी धर्म के अनुयायी, या यहूदी, कई देशों में रह रहे थे - ज्यादातर अल्पसंख्यकों के रूप में, जहां अक्सर उनकी उत्पीड़न होता था खासकर यूरोप में.
अपने खुद के देश की जरूरत
इंपीरियल रूस में, 1880 के दशक में यहूदियों को निशाना बनाकर नरसंहार किया गया था. फ्रांस में, 1894 का ड्रेफस मामला, जिसमें एक यहूदी सैनिक को जर्मनी को महत्वपूर्ण जानकारी देने का झूठा दोषी ठहराया गया था. यहूदी समुदाय में यह भावना पनपने लगी कि जब तक उनके पास अपना देश नहीं होगा तब तक वे सुरक्षित नहीं होंगे. यह आंदोलन - एक यहूदी मातृभूमि स्थापित करने का प्रयास - ज़ियोनिज्म के रूप में जाना जाने लगा था.
1896 में, ऑस्ट्रो-हंगेरियन थियोडोर हर्ज़ल की 'डेर जुडेनस्टाट' नामक पैम्फलेट में यहूदी राष्ट्र के बारे में उनके दृष्टिकोण का वर्णन किया गया था. इस पैम्फलेट को इतनी लोकप्रियता मिली कि हर्ज़ल को राजनीतिक ज़ियोनिज्म का जनक माना जाता है. शुरूआत में, युगांडा और अर्जेंटीना जैसे देशों को इस मातृभूमि के लिए संभावित जगह माना जाता था. हालाँकि, राय जल्द ही फ़िलिस्तीन पर तय हो गई, जहां एक समय यहूदियों का इश्वरीय घर था, और जहां उनके कई पवित्र स्थल भी थे.
प्रथम विश्व युद्ध से पहले
जल्द ही, फ़िलिस्तीन में यहूदियों का प्रवास (अलियाह) शुरू हो गया. आगमन की पहली लहर, 1881 से 1903 तक, प्रथम अलियाह के रूप में जानी जाती है. प्रवासियों ने बड़े पैमाने पर यहां ज़मीन खरीदनी शुरू कर दी और उस पर खेती करना शुरू कर दिया. हालांकि, यहूदियों का आगमन मूल फ़िलिस्तीनियों के लिए नुतसान बन जाएगा यह तब किसी ने नहीं सोचा था. उस समय फ़िलिस्तीन विशाल और सुशासित ओटोमन साम्राज्य का केवल एक प्रांत था.
यह जरूरी नहीं था कि तब यहां के लोग खुद को 'फिलिस्तीनी' के रूप में देखते हों. वे ओटोमन सब्जेक्ट्स, अरबों, मुसलमानों या कबीले और परिवार के आधार पर ज्यादा पहचान रखते थे. बड़े-बड़े जमींदारों की जमीन यहां थी लेकिन वे यहां रहते नहीं थे और उन्होंने अपनी जमीन यहूदियों को बेचनी शुरू कर दी. लेकिन नुकसान स्थानीय निवासियों और ज़मीन पर खेती करने वाले वास्तविक किसानों - ग्रामीण, गरीब और कम पढ़े-लिखे लोगों को हुआ.
यहूदियों ने बनाई अपनी पहचान
जब ये नए यहूदी फिलिस्तान पहुंचे तो लोगों से बहुत घुले-मिले नहीं. हमेशा से फिलिस्तीन में रहने वाले यहूदियों के विपरीत, ये नए लोग बहुत कम अरबी बोलते थे और केवल आपस में ही घुलते-मिलते थे. पहले, जब ज़मीन बदल जाती थी, तो किरायेदार नए मालिक के अधीन काम करने के लिए रुक जाते थे. हालांकि, जब कोई यहूदी ज़मीन खरीदता था, तो अरब किरायेदारों को काम नहीं दिया जाता था. इन यहुदियों ने खुद को श्रेष्ठ दिखाया. खेती का मशीनीकरण किया गया, बिजली लाई गई. एक आदर्श मातृभूमि बनाने के मिशन से प्रेरित होकर, उन्होंने स्थानीय तरीकों को नहीं अपनाया.
यहूदियों के शहर और बस्तियां यूरोपीयन परंपराओं का पालन करती थीं. साल 1909 में तेल अवीव की स्थापना हुई. इज़रायल में इंडस्ट्री को फंड किया गया. धीरे-धीरे यहां पर यहूदियों के प्रति स्थानीय लोगों में आक्रोश बढ़ने लगा. तुर्क अधिकारियों ने विदेशी यहूदियों को ज़मीन बेचने पर रोक लगा दी, लेकिन यह आदेश कभी भी प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया. 1908 में, यंग तुर्क क्रांति ने ओटोमन सुल्तान को उखाड़ फेंका और यहां यहूदी प्रवासन नहीं रुका. फ़िलिस्तीन के बाहर, अन्य देशों में यहूदियों ने अपने उद्देश्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के लिए काम किया.
बाल्फोर घोषणा
संभवतः जिस चीज़ ने पश्चिम एशिया का चेहरा हमेशा के लिए बदल दिया, वह थी 1917 की बाल्फ़ोर घोषणा, जब एक ब्रिटिश अधिकारी ने एक धनी ब्रिटिश यहूदी को एक पत्र भेजा और इसने लाखों फ़िलिस्तीनियों के भाग्य पर मुहर लगा दी. प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को यहूदी समर्थन की आवश्यकता थी. इसे सुरक्षित करने के लिए, विदेश सचिव आर्थर जेम्स बालफोर ने ज़ियोनिज्म का समर्थन किया. हालांकि, तब तक फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद बढ़ने लगा था. बढ़ते यहूदी प्रभाव के विरोध में विभिन्न समूह और संगठन सामने आये थे. लेकिन गुटबाजी के कारण उनके प्रयास साकार नहीं हुए.
इसके अलावा, लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष ने दोनों समुदायों के बीच स्थायी शत्रुता और अविश्वास पैदा कर दिया था और हिंसा की छिटपुट घटनाएं होने लगीं. प्रथम विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य की हार के बाद, फ़िलिस्तीन ब्रिटिश शासनादेश के अधीन आ गया. इसके बाद, अरबों ने यहूदी बस्तियों पर हमला करना शुरू किया. साथ ही, सालों तक ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए लगातार संघर्ष किया. उन्हें लगा ब्रिटिश शासन के खात्मे से ज़ियोनिज्म की समस्या हल हो जाएगी. लेकिन इन हमलों के कारण जो यहूदी अरबी लोगों के अधिकारों की वकालत कर रहे थे उनकी आवाज भी दब गई.
अरबों और यहूदियों के बीच बातचीत
अरब पक्ष में, मोटे तौर पर यरूशलेम के ग्रैंड मुफ्ती मोहम्मद अमीन अल-हुसैनी और प्रभावशाली नशाशिबी परिवार के तहत दो प्रतिद्वंद्वी गुट उभरे. हथियार उठाने वाले गुट अक्सर राजनीतिक प्रतिरोध गुटों से पूरी तरह अलग हो जाते थे. यहूदियों और अरबों के बीच बातचीत के कुछ प्रयास हुए, जिनमें 1919 का समझौता उल्लेखनीय था, जो जल्द ही विफल हो गया. द्वितीय विश्व युद्ध और प्रलय के बाद यहूदियों को अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति मिलने लगी. ब्रिटिश सैनिकों के साथ प्रशिक्षण से यहूदी सैनिक ज्यादा ताकतवर हो गए.
1936 से 1938 के वर्षों में भारी रक्तपात हुआ, फिलिस्तीनियों ने यहूदियों और अंग्रेजों पर हमला किया, अंग्रेजों ने फिलिस्तीनी गांवों पर सामूहिक दंड लगाया और यहूदियों ने भी किसी को नहीं छोड़ा. फिलिस्तीनी इस अवधि को 'अल-थवरा अल-कुबरा' या महान विद्रोह कहते हैं. सशस्त्र समूहों में से एक को ब्लैक हैंड कहा जाता था, जिसका नेतृत्व इज़्ज़ेदीन अल-क़सम ने किया था. हमास की सैन्य शाखा को आज अल-क़सम ब्रिगेड कहा जाता है. लगभग इसी समय, अंग्रेजों के पील कमीशन ने समस्या के एकमात्र समाधान के रूप में विभाजन का प्रस्ताव रखा.
फिलिस्तीनियों ने ठुकराया बंटवारा
यहूदी पक्ष ने बेहतर शर्तों के लिए बातचीत की, लेकिन फ़िलिस्तीनी पक्ष ने बंटवारे के सुझाव का बहिष्कार किया. मई 1939 में, ब्रिटिश द्वारा जारी एक श्वेत पत्र फ़िलिस्तीनी पक्ष के लिए अधिक अनुकूल था. हालांकि, फिलिस्तीनी नेतृत्व पहले ही गुटों में बंटा हुआ था और उन्होंने मौके का फायदा नहीं उठाया. फिर अंग्रेजों ने वही किया जो उन्होंने भारत में किया था - समस्या को बढ़ने दिया और फिर खुद पीछे हट गए. 1947 में, जब कोई भी पक्ष विभाजन या किसी अन्य समाधान पर सहमत नहीं था, तब अंग्रेजों ने घोषणा की कि वे फिलिस्तीनको आजाद कर रहे हैं और यहूदी और अरबों की समस्या का समाधान संयुक्त राष्ट्र करेगा.
इस पूरी अवधि में, एक बात स्पष्ट थी - यहूदियों का लड़ने और जीतने का दृढ़ संकल्प. यहूदी बहुत अल्पसंख्यक थे, लेकिन जब भी हिंसा भड़कती थी, वे हावी हो जाते थे. इसका एक महत्वपूर्ण कारक यह था कि उन्होंने बेहतर चिकित्सा उपचार सुविधाएं भी जुटाईं, जबकि फिलिस्तीनियों के लिए छोटी सी चोट भी जानलेवा हो जाती थी.
14 मई 1948 को बना इज़रायल
29 नवंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित करने के लिए मतदान किया, जिसमें येरूशलम संयुक्त राष्ट्र के नियंत्रण में था. हालांकि, नाराज फिलिस्तीनी पक्ष ने यूएन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. दूसरी ओर, इज़रायल ने 14 मई, 1948 को स्वतंत्रता की घोषणा की. इज़रायली सैन्य समूह बड़ी संख्या में फिलिस्तीनियों को बाहर निकालने में कामयाब रहे. फिलिस्तीनियों द्वारा इज़रायल के निर्माण को नकबा या तबाही कहा जाता है, जो इसे उस दिन के रूप में देखते हैं जब उन्होंने अपनी मातृभूमि खो दी थी.
इज़राइयल की स्वतंत्रता की घोषणा के तुरंत बाद, मिस्र, जॉर्डन, इराक, सीरिया और लेबनान ने उस पर आक्रमण किया. हालांकि, दृढ़ इजरायली पक्ष, अमेरिका के हथियारों और धन से प्रेरित होकर, उन्हें वापस हराने में कामयाब रहा. इसके बाद और ज्यादा अरब-इजरायल युद्ध हुए, जिसमें इज़रायल ने बड़े क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया. आज, संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 139 फिलिस्तीन को मान्यता देते हैं, जबकि 165 इज़रायल को मान्यता देते हैं.