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Nepal Politics: 16 साल, 11 सरकार, प्रचंड की सियासत में फंसा नेपाल, राजशाही की वापसी के लिए काठमांडू में रैली... जानिए क्या हैं देश के सियासी हालात

साल 2008 में नेपाल से राजशाही का खात्मा हो गया था. उसके बाद देश में लोकतंत्र आया था. लेकिन 16 साल में अब तक 11 बार सरकारें बदल चुकी हैं. एक बार फिर प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस से नाता तोड़ लिया है और CPN-UML के साथ गठबंधन कर लिया है. उधर, राजधानी काठमांडू में राजशाही के समर्थन में रैलियां निकल रही हैं और ज्ञानेंद्र शाह को फिर से राजा घोषित करने की मांग की जा रही है.

The political situation is changing in Nepal The political situation is changing in Nepal

नेपाल की सियासत में एक बार फिर बड़ा बदलाव हुआ है. प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर) ने नेपाली कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड मार्कसिस्ट लेनिनिस्ट) से नया गठबंधन कर लिया है. प्रचंड को अब नए सिरे से आज यानी 13 मार्च को सदन में बहुमत साबित करना है. प्रचंड की पार्टी निचले सदन में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है.

नए सहयोगी के साथ प्रचंड की सरकार-
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस से नाता तोड़ लिया है और अब पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली की अगुवाई वाली CPN-UML के साथ गठबंधन कर लिया है. अब जब प्रंचड ने नए सहयोगी का साथ लिया है तो उनको फिर से सदन में बहुमत साबित करना होगा. नेपाल के संविधान के मुताबिक किसी सहयोगी दल के सरकार से अलग होने पर प्रधानमंत्री को सदन में 30 दिन के भीतर विश्वास मत हासिल करना होता है.

क्या है सदन का समीकरण-
नेपाल की प्रतिनिधि सभा में 275 सदस्य हैं. सरकार को बहुमत साबित करने के लिए 138 वोटों की जरुरत पड़ती है. बताया जा रहा है कि प्रचंड की सरकार को निचले सदन में 150 सदस्यों का समर्थन है. इसका मतलब है कि प्रचंड आसानी से विश्वास मत हासिल कर लेंगे. प्रतिनिधि सभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी केपी ओली की सीपीएन-यूएमएल है. जिसके पास 76 सांसद हैं. जबकि तीसरी सबसे बड़ी पार्टी प्रचंड की सीपीएन-माओवादी सेंटर है. जिसके पास 32 सीटें हैं. इसके अलावा राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के पास 20, जनता समाजवादी पार्टी के 12 और सीपीएन-यूनिफाइड सोशलिस्ट के पास 10 सीटें हैं. जबकि नेपाली कांग्रेस के पास 88 सीटें हैं. हालांकि नेपाल कांग्रेस अब सरकार से बाहर हो गई है.

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आपको बता दें कि नेपाल की प्रतिनिधि सभा की 165 सीटों पर प्रतिनिधि का चुनाव जनता करती है. जबकि 110 सदस्यों का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रोसेस से होता है.

चुनाव में नेपाली कांग्रेस को मिली थी प्रचंड जीत-
नेपाल में साल 2022 में आम चुनाव हुए थे. जिसमें नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के बीच गठबंधन था. पुष्प कमल दहल ने दिसंबर 2022 में प्रधानमंत्री पद संभाला था. उस सरकार को नेपाली कांग्रेस के सांसदों का समर्थन था. लेकिन अब नेपाली कांग्रेस सरकार से बाहर हो गई है और एक बार फिर प्रचंड और केपी ओली साथ आ गए ङैं. 69 साल के प्रचंड तीसरी बार बहुमत साबित करेंगे.

नेपाली कांग्रेस और प्रचंड में मतभेद क्यों-
नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच कई मुद्दों पर मतभेद थे. लेकिन सबसे बड़ा मतभेद नेशनल असेंबली के अध्यक्ष पद को लेकर था. नेपाली कांग्रेस नहीं चाहती थी कि अध्यक्ष का पद प्रचंड की पार्टी के पास जाए. नेशनल असेंबली का पद काफी अहम होता है. तमाम संवैधानिक निकायों में सदस्यों की नियुक्तियां उसी की सिफारिश पर होती हैं.

नई सरकार भारत के लिए कितनी अहम-
नेपाल में दो कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने के फैसले का असर भारत पर क्या होगा? करीब 13 महीने तक चली प्रचंड और नेपाली कांग्रेस की सरकार भारत के लिए सहज थी. लेकिन अब माना जा रहा है कि पूरी तरह से वामपंथी दलों की सरकार चीन के लिए सहज होगी. हालांकि नई सरकार से कोई बड़े बदलाव की संभावना नहीं है. लेकिन भारत को लेकर सरकार का नजरिया बदल सकता है.

राजशाही की मांग के लिए प्रदर्शन-
16 साल पहले साल 2008 में नेपाल की जनता सड़कों पर उतर आई थी और राजा ज्ञानेंद्र शाह को सिंहासन छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था. नेपाल ने लोकतंत्र अपनाया था. लेकिन लोकतंत्र का सिस्टम नेपाल में कुछ खास नहीं कर पाया है. राजशाही के खत्म होने के बाद अब तक 11 सरकारें बन चुकी हैं. ऐसे में जनता का सरकार और संसद से मोहभंग होने लगा है. जनता एक बार फिर सड़क पर उतर गई है. लोग नेपाल में परिवर्तन की मांग कर रहे हैं. राजशाही के समर्थन में रैलियां निकाली जा रही हैं. ज्ञानेंद्र शाह को एक बार फिर से राजा और हिंदू धर्म को राज्य धर्म घोषित करने की मांग की जा रही है.

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