Japan Sterilisation: जापान की सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. जापान की सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नसबंदी के हजारों पीड़ितों को मुआवजा देने का आदेश दिया है.
आपको बता दें कि नसबंदी के कानून के तहत 1948 से 1996 तक लगभग 25 हजार लोगों की नसबंदी की गई थी. हजारों लोगों की नसबंदी बिना सहमति के की गई थी.
जापान में 1948 में इस कानून को इसलिए लाया गया था ताकि विकलांग लोग बच्चे पैदा ना कर पाएं. जापान की कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताया है. कोर्ट ने इस फैसले में यह भी बताया कि मुआवजे के लिए दावा करने वाले लोगों पर 20 साल की समय सीमा नहीं लगाई जा सकती है.
क्यों आया ये कानून?
साल 1883 में ब्रिटिश एक्सप्लोरर और नेचुरल साइंटिस्ट फ्रांसिस गाल्टन ने यूजेनिक्स टर्म दिया. इस टर्म को अपनाकर आप खास बच्चों को पैदा कर सकते हैं. यूजेनिक्स का मानना था कि कुछ चीजें विरासत में मिलती हैं. अगर विकलांग लोग बच्चे पैदा ना करें तो आसपास सभी लोग अच्छे होंगे.
यूएएस सरकार की नेशनल ह्यूमन जीनोम इंस्टीट्यूट के अनुसार, यूजेनिक्स वैज्ञानिक रूप से पूरी तरह से गलत है. यूजेनिक्स की वजह से विकलांग लोग और LGBTQ कम्युनियटी की आबादी पर काफी असर पड़ा है.
जापान टाइम्स के अनुसार, साल 1948 में जापान ने यूजेनिक्स कानून को लागू किया था. जंग के बाद तेजी के बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने विकलांग लोगों की नसबंदी करने की परमिशन दे दी थी. ये भी कहा गया कि इस कानून से मां की जिंदगी और हेल्थ भी अच्छी रहेगी.
यूजेनिक्स कानून के तहत नसबंदी करने से पहले व्यक्ति और उसके पार्टनर की सहमति लेना जरूरी था. जापान में कई मामले सामने आए हैं जिसमें बिना सहमति के लोगों की नसबंदी कर दी गई. बीबीसी की पार्लियामेंटरी रिपोर्ट के अनुसार, इस कानून के तहत 9 साल की उम्र से ही पीड़ितों की नसबंदी की गई.
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, इन 48 सालों में कम से कम 25 हजार लोगों की नसबंदी की गई थी. ऐसा माना जाता है कि उनमें से कम से कम 16,500 लोगों की नसबंदी जबरन की गई थी. जापान में साल 1948 में लागू हुआ यूजेनिक्स कानून 48 साल तक बना रहा. 1996 में इस कानून को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया.
कोर्ट में केस
जापान में जबरन नसबंदी से पीड़ित कई लोगों ने कोर्ट में याचिका दायर की. पीड़ितों ने इस कानून के तहत विकलांगों पर भेदभाव का आरोप लगाया और मुआवजे की मांग की. जापान टाइम्स के मुताबिक, दशकों से पीड़ित कई शहरों की कोर्ट में न्याय की मांग कर रहे थे. 39 लोगों ने अलग-अलग कोर्ट में याचिका दायर की थी. इनमें से 6 लोगों की मौत हो चुकी है.
2019 में सेंडई जिला कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताया लेकिन मुआवजे का मांग को नहीं माना. साल 2019 में जापान सरकार ने हर पीड़ित को 3.2 मिलियन येन मुआवजा देने की बात की जिसे लोगों ने ठुकरा दिया. इसके बाद 2022 में ओसाका हाईकोर्ट ने सरकार को हर पीड़ित को 55 मिलियन येन देने का आदेश दिया.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
हाल ही में 3 जुलाई 2024 को जापान की सुप्रीम कोर्ट ने इस मामला में फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को हर पीड़ित को 16.5 मिलियन येन और उनके पार्टनर को 2.2 मिलियन येन देने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से हजारों पीड़ितों को राहत मिली है.