आज पूरी दुनिया इजरायल और हमास के बीच चल रही जंग के कारण चिंता में है. हमास के आतंकी हमले के जवाब में इजरायल लगातार कार्यवाई कर रहा है. यह जंग सालों से चल रहे इजरायल और फिलीस्तीन के मुद्दे का परिणाम है. इस जंग के समय में इजरायल, फिलीस्तीन, गाज़ा और हमास के बड़े नामों के बीच एक और नाम गूंज रहा है और वह है यासिर अराफात का.
यासिर अराफात का नाम इजरायल और फिलीस्तीन, दोनों देशों के इतिहास में सबसे अहम है और आज भी न सिर्फ इन दोनों मुल्कों में बल्कि पूरी दुनिया में याद किया जाता है. आपको बता दें, यासिर अराफात एक फ़िलिस्तीनी नेता थे. अराफात को फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए जाना जाता है. आज हम आपको बता रहे हैं उनके हथियार उठाने से लेकर शांतिदूत बनने तक की कहानी.
हमेशा से चाहते थे स्वतंत्र फिलीस्तीन देश
मोहम्मद अब्देल-रऊफ अराफात के पिता एक कपड़ा व्यापारी थे, जो मिस्र वंश के फिलिस्तीनी थे. उनकी मां यरूशलेम में एक पुराने फिलिस्तीनी परिवार से थीं. जब यासिर पांच साल के थे, तब उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें फिलिस्तीन के ब्रिटिश शासनादेश की राजधानी यरूशलेम में उसके मामा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया. यरूशलेम में चार साल बिताने के बाद, उनके पिता उन्हें वापस काहिरा ले आए. यहां सत्रह साल की उम्र से पहले अराफात ब्रिटिश और यहूदियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए फिलिस्तीन में हथियारों की तस्करी करने लगे थे.
उन्नीस साल की उम्र में, यहूदियों और अरब राज्यों के बीच युद्ध के दौरान, अराफात ने गाजा क्षेत्र में यहूदियों के खिलाफ लड़ने के लिए फौद I विश्वविद्यालय (बाद में काहिरा विश्वविद्यालय) में अपनी पढ़ाई छोड़ दी. अरबों की हार और इज़राइल राज्य की स्थापना ने उन्हें इतनी निराशा में डाल दिया कि उन्होंने टेक्सास विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए वीजा के लिए आवेदन किया. लेकिन स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी मातृभूमि के अपने सपने को बरकरार रखते हुए, वह इंजीनियरिंग में पढ़ाई करने के लिए फ़ौद विश्वविद्यालय लौट आए लेकिन अपना ज्यादातर समय फ़िलिस्तीनी छात्रों के नेता के रूप में बिताया.
फिलीस्तीन के आजादी के लिए खुद को समर्पित किया
अराफात ने 1956 में अपनी डिग्री हासिल की, फिर कुछ समय के लिए मिस्र में काम किया, फिर कुवैत में बस गए. पहले वह सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्यरत रहे, इसके बाद सफलतापूर्वक अपनी खुद की कॉन्ट्रैक्टिंग फर्म चला रहे थे. हालांकि, उनका सारा खाली समय राजनीतिक गतिविधियों में जाता था. 1958 में उन्होंने और उनके दोस्तों ने एक अंडरग्राउंड नेटवर्क अल-फतह की स्थापना की, जिसने 1959 में इज़राइल के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की वकालत करने वाली एक जर्नल पब्लिश करना शुरू किया. 1964 के अंत में अराफात ने कुवैत छोड़कर पूरी तरह से फिलीस्तान की स्वतंत्रता के लिए खुद को समर्पित कर दिया.
1964 में ही अरब लीग के प्रायोजन के तहत पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) की स्थापना की गई थी, जिसमें फिलिस्तीनियों के लिए फिलिस्तीन को मुक्त कराने के लिए काम करने वाले कई समूहों को एक साथ लाया गया था. हालांकि, साल 1967 के छह-दिवसीय युद्ध में इज़राइल ने इस संगठन को हरा दिया लेकिन इसके बावजूद फतह पीएलओ बनाने वाले समूहों में सबसे शक्तिशाली संगठन के रूप में उभरा. 1969 अराफात पीएलओ कार्यकारी समिति के अध्यक्ष बने. पीएलओ अब जॉर्डन में स्थित एक स्वतंत्र राष्ट्रवादी संगठन बन गया था. लेकिन इजरायल की लगातार कोशिशों और हमलों ने जॉर्डन को मजबूर किया कि वे फतह को देश से निकाल देंय
संयुक्त राष्ट्र को किया था संबोधित
इसके अराफात ने लेबनान में एक समान संगठन बनाने की मांग की, लेकिन इजरायल ने लगातार हमले उन्हें कमजोर कर रहे थे. इसके बाद इंतिफादा ने उन्हें मजबूत किया और दुनिया के सामने फिलीस्तानियों की परेशानी आई. 1974 में पीएलओ को औपचारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता दी गई थी, और अराफात संयुक्त राष्ट्र को संबोधित करने वाले किसी गैर सरकारी संगठन के पहले नेता बने. स्विट्जरलैंड के जेनेवा में आयोजित एक विशेष संयुक्त राष्ट्र सत्र में एक भाषण में अराफात ने पीएलओ के आतंकवाद को त्यागने की घोषणा की और कहा वे शांति का रास्ता चाहते हैं. इसके परिणामस्वरूप इजरायल फिलीस्तान के बीच 1993 का ओस्लो समझौता हुआ.
साल 1994 में अराफात उनके इस कदम के लिए तत्कालीन इजरायली पीएम यितज़क राबिन के साथ नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया. हालांकि, यह आज भी विवाद का विषय है. साल 1996 में अराफात नए फिलीस्तीन शासन के प्रेजिडेंट बने. हालांकि, बाद के सालों में जैसी लोगों ने आशा की थी, वैसी स्थिति नहीं हो पाई.
इंदिरा गांधी को मानते थे बड़ी बहन
अराफात का एक किस्सा यह भी है कि वह भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी बड़ी बहन मानते थे. दरअसल, साल 1983 में नई दिल्ली में गुट-निरपेक्ष देशों के सम्मेलन के दौरान जब उनसे पहले जॉर्डन के प्रतिनिधि को बोलने का मौका दिया गया तो वह नाराज हो गए और वाप जाने लगे. लेकिन तभी इंदिरा गांधी वहां फिदेल कास्त्रो के साथ पहुंचीं और कास्त्रो ने अराफात से कहा कि इंदिरा तुम्हारी दोस्त है या नहीं. इस पर अराफात ने कहा कि वह मेरी दोस्ती नहीं... बड़ी बहन हैं. इस पर कास्त्रो ने कहा कि तुम इस तरह जाकर अपनी बहन का अपमान कर रहे हो और यह सुनकर अराफात तुरंत सम्मेलन में वापस चले गए.
बताया जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 3 नवंबर 1984 को उनका नई दिल्ली में अंतिम संस्कार हो रहा था. सब 127 देशों को नेता उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे और उनमें यासिर अराफात भी थे. अपनी बड़ी बहन को अंतिम विदाई देते समय उनकी आंखों में आंसू थे. साल 2000 में एक बार फिर फिलीस्तान और इजरायल के रिश्तों में कड़वाहट आने लगी और दोनों देशों के बीच शांति प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं रह गया. इसके कुछ साल बाद 2004 में अराफात का देहांत हो गया. लोग उनकी मौत का सही कारण आज भी नहीं जानते हैं.